आज भी याद है
धुल में सनी हुई
भनभनाती मक्खियों से घिरी हुई
गरम गरम गुड़ही जलेबी और पकौड़ियाँ
और एक लम्बी कतार दुकान के सामने
उसी भीड़ में
एक अभी अभी रोया हुआ बच्चा
शायद मम्मी ने मारा होगा
उस जिद्द पे कि पकौड़ियाँ खानी हैं
बाकि बच्चो की तरह
शायद उसने भी
माँ का पल्लू जोर से खिंचा होगा
और अपनी छोटी-सी उँगलियों से
खौलते तेल में पकते
पकौड़ियों से निकलते धुंए को
छूने की कोशिश की होगी
शायद उसने भी
गुड़ही रस में
डूबकी लगाते हुए
गरम गरम जलेबियों के साथ नहाया होगा
लेकिन माँ
जिसके गोद में एक और सूखा-सा
चार महीने का शिशु
अपने पास पड़े एकमात्र रूपये से उसने
रोते हुए नन्हे को चुप करने के लिए
दूध खरीद लिया था
असहाय थी
कोई चारा नहीं था
उस दो साल के बड़े को बड़प्पन समझाने के सिवा
akhilesh g, Ok likha hai, wo baat nai hai jo tumhare blogs mein hoti hai, wo kahte hain naa ki tadke ki kami hai
ReplyDeleteapne gyan ke saagar se kuch soch kar bhahar lao aur apna jalwa dikhao
Good One..
ReplyDeleteAccha hai guru..
यहाँ कवि ये कहना चाहता है की उसके बचपन के दिन उसे बहुत याद आते हैं
ReplyDeleteऔर वो ये भी कहना चाहता है की आज के इस महंगाई में माँ अपने बच्चो को
वो सब कुछ नहीं दे पा रही है जो बच्चा चाह रहा है, वो बच्चे की रोने की वजह को भिन्न भिन्न तरीको से तुलना करता है,
और कवि ये भी बताना चाहता है कि आज कि इस असहाय माँ को देखकर भी कोई उसकी मदद के लिए आगे नहीं आता.
कवि आम आदमी के इस दृश्य को देखकर हमारे व्यवथाओं पर भी कटाक्ष कर रहा है.
Dhanyawaad Jayant for nicely analysing it with so preciseness....:)
Deletebahut achee .. likhte rahoo
ReplyDeleteAwesom... Nice one... keep writing..
ReplyDeleteGahrayi hai sir ji ... baat rochak toh hai hi ..saath hi saath .. marmik bhi hai
ReplyDeleteGud piece of laghukatha :)
Vipin...dhanyawaad for these good words....:)
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