Saturday, September 4, 2010

आज भी याद है

आज  भी  याद  है
धुल  में  सनी  हुई 
भनभनाती मक्खियों से घिरी हुई
गरम  गरम  गुड़ही जलेबी  और  पकौड़ियाँ
और एक  लम्बी  कतार  दुकान  के  सामने

उसी  भीड़  में
एक  अभी  अभी  रोया  हुआ  बच्चा
शायद  मम्मी  ने  मारा  होगा
उस  जिद्द  पे  कि  पकौड़ियाँ  खानी  हैं
बाकि  बच्चो  की  तरह
शायद  उसने  भी
माँ  का  पल्लू  जोर  से  खिंचा  होगा
और  अपनी  छोटी-सी  उँगलियों से
खौलते तेल  में  पकते
पकौड़ियों  से  निकलते  धुंए  को
छूने  की  कोशिश  की  होगी

शायद  उसने  भी
गुड़ही  रस  में
डूबकी  लगाते हुए
गरम  गरम  जलेबियों  के साथ  नहाया  होगा

लेकिन  माँ
जिसके  गोद  में  एक  और  सूखा-सा
चार  महीने  का  शिशु
अपने   पास  पड़े  एकमात्र  रूपये  से  उसने
रोते  हुए  नन्हे  को  चुप  करने  के  लिए
दूध  खरीद  लिया  था
असहाय  थी
कोई  चारा  नहीं  था

उस  दो  साल  के  बड़े  को  बड़प्पन  समझाने  के सिवा

8 comments:

  1. akhilesh g, Ok likha hai, wo baat nai hai jo tumhare blogs mein hoti hai, wo kahte hain naa ki tadke ki kami hai
    apne gyan ke saagar se kuch soch kar bhahar lao aur apna jalwa dikhao

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  2. यहाँ कवि ये कहना चाहता है की उसके बचपन के दिन उसे बहुत याद आते हैं
    और वो ये भी कहना चाहता है की आज के इस महंगाई में माँ अपने बच्चो को
    वो सब कुछ नहीं दे पा रही है जो बच्चा चाह रहा है, वो बच्चे की रोने की वजह को भिन्न भिन्न तरीको से तुलना करता है,
    और कवि ये भी बताना चाहता है कि आज कि इस असहाय माँ को देखकर भी कोई उसकी मदद के लिए आगे नहीं आता.
    कवि आम आदमी के इस दृश्य को देखकर हमारे व्यवथाओं पर भी कटाक्ष कर रहा है.

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    1. Dhanyawaad Jayant for nicely analysing it with so preciseness....:)

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  3. Awesom... Nice one... keep writing..

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  4. Gahrayi hai sir ji ... baat rochak toh hai hi ..saath hi saath .. marmik bhi hai

    Gud piece of laghukatha :)

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