Saturday, October 16, 2010

जलधि में जा न मिला होता

सागर का निर्मल पानी, शायद खारा न हुआ होता,
गर दनुजों का नमकीन रक्त, जलधि में जा न मिला होता | 

पंचवटी की लक्ष्मण रेखा और कपट का स्वर्ण हिरण,
भिक्षा के वो चार अन्न , बन गये सिया के अश्रु सघन,
अपराजेय त्रिलोकी का, कुत्सित विलास और कुप्रवचन,
असहाय सिया का अश्रु नयन, जलधि में जा न मिला होता |

निज अहंकार पे बलि चढ़ा, निज बन्धु और निज पुत्रों का,
नक्षत्र विजेता रख न सका, वो दिशा ज्ञान नक्षत्रों का,
छद्म गर्व मिथ्या आडम्बर, अपराजित कुल-नाशक का पन
अपमानित भाई का तन, बैरी में जा न मिला होता |

हठ की हठता का अंत हुआ ,भूशायी दानव कंत हुआ,
खुद की लगायी उस अग्नी में, त्रेता भस्मासुर भस्म हुआ,
शाश्वत परंपरा धर्म प्रबल, मानव का वह संकल्प अटल,
वनवासी का वो स्वेद तरल , जलधि में जा न मिला होता |

Thursday, September 23, 2010

शायद कभी ना मिले

लोग कहते हैं

मैंने अपना पहला निवाला दादी के हाथ से लिया था
दूध भात और थोड़ी सी चीनी
मैंने रोते रोते मुह से बाहर कर दिया था
मम्मी मारने के लिए उठी ही थी
और दादी ने अपनी गोद में छुपा लिया था मुझे

शाम के समय जब माँ
लालटेन में तेल डाल रही थी
और शरारत में मैंने पैर से ठोकर लगा के
शीशा फोड़ दिया था
मम्मी मारने के लिए उठी ही थी
सरपट भागा था मैं 
और दादी ने अपनी गोद में छुपा लिया था मुझे

घर घर जाकर सौदा देने आई
सहुआईन से कितना झगडा किया था
क्यूंकि उसने छीन लिया था मेरी हाथ से 
वो दो पांच पैसे के नारंगी चाकलेट
जो उसकी टोकरी से मैंने उठा ली थी
और चोरी के जुर्म में  मम्मी मारने के लिए उठी ही थी
 सरपट भागा था मैं 
 और दादी ने अपनी गोद में छुपा लिया था मुझे

आज भी महसूस होती हैं

वो कांपती खुरदरी हाथो की थपकियाँ
वो राजा रानी चूहे बिल्ली की कहानियां 
वो बेजान सी हाथ अपने सर के ऊपर 
पूरे पके हुए बालो की छांव,
लगभग जवाब दे गयी आँखों की चमक,
खाट से नहीं उठ पाने की बेबसी
पर मेरे लिए दुनिया उठा लेने की चाह,
लडखडाती जुबान से आशीर्वादों की बारिश

शायद कभी ना मिले

Tuesday, September 14, 2010

वो जी लेगी

['हिंदी दिवस' पर हिंदी को समर्पित ये एक प्रस्तुति..........]

हिंदी
एक मध्यवर्गीय भाषा
या यूँ कहे की मध्यवर्ग की भाषा

फटेहाल परेशान दुखी
अपने ही अस्तिस्त्व को खोजती  हुई
अपने ही अस्तिस्त्व में खोयी  हुई
रोज एक पल जी लेने की कोशिश करती हुई
अपनी इज्जत छुपाने के लिए
दरवाजे पे लगे फटे परदे को रोज सिलती  हुई
ना तो घुमंतुओ को तरह कहीं भी बेफिक्र होकर सो सकती है
और ना ही तथाकथित सभ्य समाज की तरह बेपरवाह
द्रौपदी की तरह अपनों और बेगानों से लड़ती हुई
चूल्हा चौका आटा दाल से महाभारत दुहराती हुई


लेकिन एक खूबी
जो करती है इसको सबसे जुदा 
दिल समंदर से भी बड़ा
सबकुछ अपने अन्दर समाने की अद्भुत क्षमता
अच्छे की बुराई को अपनाया 
तो बुरे की अच्छाई को भी समाविष्ट किया
बिलकुल जैसे गंगा की सगी बहन ही हो  

हर हाल में खुश दिखने जैसा नाटक 
केवल नाटक नहीं बल्कि
नाटक से भी ज्यादा सच्चा ,
निश्चिन्त करती हुई
कि वो जी लेगी
चाहे जैसे भी हो  

Saturday, September 4, 2010

आज भी याद है

आज  भी  याद  है
धुल  में  सनी  हुई 
भनभनाती मक्खियों से घिरी हुई
गरम  गरम  गुड़ही जलेबी  और  पकौड़ियाँ
और एक  लम्बी  कतार  दुकान  के  सामने

उसी  भीड़  में
एक  अभी  अभी  रोया  हुआ  बच्चा
शायद  मम्मी  ने  मारा  होगा
उस  जिद्द  पे  कि  पकौड़ियाँ  खानी  हैं
बाकि  बच्चो  की  तरह
शायद  उसने  भी
माँ  का  पल्लू  जोर  से  खिंचा  होगा
और  अपनी  छोटी-सी  उँगलियों से
खौलते तेल  में  पकते
पकौड़ियों  से  निकलते  धुंए  को
छूने  की  कोशिश  की  होगी

शायद  उसने  भी
गुड़ही  रस  में
डूबकी  लगाते हुए
गरम  गरम  जलेबियों  के साथ  नहाया  होगा

लेकिन  माँ
जिसके  गोद  में  एक  और  सूखा-सा
चार  महीने  का  शिशु
अपने   पास  पड़े  एकमात्र  रूपये  से  उसने
रोते  हुए  नन्हे  को  चुप  करने  के  लिए
दूध  खरीद  लिया  था
असहाय  थी
कोई  चारा  नहीं  था

उस  दो  साल  के  बड़े  को  बड़प्पन  समझाने  के सिवा