Saturday, October 16, 2010

जलधि में जा न मिला होता

सागर का निर्मल पानी, शायद खारा न हुआ होता,
गर दनुजों का नमकीन रक्त, जलधि में जा न मिला होता | 

पंचवटी की लक्ष्मण रेखा और कपट का स्वर्ण हिरण,
भिक्षा के वो चार अन्न , बन गये सिया के अश्रु सघन,
अपराजेय त्रिलोकी का, कुत्सित विलास और कुप्रवचन,
असहाय सिया का अश्रु नयन, जलधि में जा न मिला होता |

निज अहंकार पे बलि चढ़ा, निज बन्धु और निज पुत्रों का,
नक्षत्र विजेता रख न सका, वो दिशा ज्ञान नक्षत्रों का,
छद्म गर्व मिथ्या आडम्बर, अपराजित कुल-नाशक का पन
अपमानित भाई का तन, बैरी में जा न मिला होता |

हठ की हठता का अंत हुआ ,भूशायी दानव कंत हुआ,
खुद की लगायी उस अग्नी में, त्रेता भस्मासुर भस्म हुआ,
शाश्वत परंपरा धर्म प्रबल, मानव का वह संकल्प अटल,
वनवासी का वो स्वेद तरल , जलधि में जा न मिला होता |

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